अचेतन सनातन को तर्क नहीं चिन्तन की आवश्यकता:
एन0के0शर्मा
भारतीय दर्शन और संस्कृति में “सनातन” का अर्थ है शाश्वत और अनंत सत्य। यह सत्य समय, स्थान और परिस्थिति से परे है और हमारे अस्तित्व की गहरी जड़ों से जुड़ा हुआ है। जब हम “अचेतन सनातन” की बात करते हैं, तो हम उस शाश्वत सत्य की बात कर रहे होते हैं जो हमारे चेतन अनुभव से परे है। हमारा उद्देश्य यह समझना है कि क्यों अचेतन सनातन को तर्क के बजाय चिन्तन की आवश्यकता है।
अचेतन सनातन:
अचेतन का अर्थ है वह जो हमारी सामान्य चेतना से परे है। यह हमारे भीतर की गहरी सच्चाईयों और अनुभूतियों का प्रतिनिधित्व करता है। सनातन धर्म की मूलभूत शिक्षाएँ और सिद्धांत इसी अचेतन से उत्पन्न होते हैं और हमें आत्म-साक्षात्कार एवं ब्रह्मज्ञान की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
तर्क और चिन्तन: एक तुलना
तर्क:
तर्क एक विश्लेषणात्मक प्रक्रिया है जो प्रमाण, सबूत और तात्कालिक जानकारी पर आधारित होती है। यह वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार कार्य करती है और बाहरी सत्य की खोज में सहायक होती है। तर्क का उद्देश्य है वस्तुनिष्ठ और ठोस निष्कर्षों पर पहुंचना।
चिन्तन:
चिन्तन एक गहन आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया है जो मनुष्य के भीतर की सच्चाईयों और अनुभूतियों को उजागर करती है। यह तर्क की सीमाओं से परे जाकर गहन आत्मीयता और आध्यात्मिकता के माध्यम से सत्य की खोज करती है। चिन्तन का उद्देश्य है आत्म-साक्षात्कार और आंतरिक शांति प्राप्त करना।
तर्क की सीमाएँ
सीमित ज्ञान: तर्क केवल उन तथ्यों पर निर्भर करता है जो हमारे इंद्रियों और आधुनिक उपकरणों द्वारा मापे जा सकते हैं। यह उन गूढ़ और गहन अनुभवों को नहीं समझ सकता जो अचेतन क्षेत्र में स्थित होते हैं।
प्रमाण की आवश्यकता: तर्क प्रमाण और सबूत की आवश्यकता पर जोर देता है। यह अचेतन और आध्यात्मिक अनुभूतियों के क्षेत्र में हमेशा उपलब्ध नहीं होता।
संकीर्ण दृष्टिकोण: तर्क का दृष्टिकोण अक्सर संकीर्ण होता है और यह जीवन के व्यापक और गूढ़ अनुभवों को पकड़ने में असमर्थ होता है।
चिन्तन का महत्व:
आध्यात्मिक अनुभव: चिन्तन हमें हमारे गहरे आध्यात्मिक अनुभवों और सच्चाईयों के करीब ले जाता है, जो तर्क की सीमाओं से परे हैं।
आत्म-साक्षात्कार: चिन्तन हमें आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करता है, जिससे हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकते हैं।
समग्र दृष्टिकोण: चिन्तन का दृष्टिकोण समग्र होता है और यह जीवन के हर पहलू को समाहित कर सकता है।
अचेतन सनातन की भूमिका:
सनातन धर्म की शिक्षाएँ हमें इस गहरे अचेतन क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रेरणा देती हैं। यह धर्म न केवल हमें जीवन के बाहरी सत्यों को समझने की प्रेरणा देता है, बल्कि हमें हमारे भीतर की अनन्त सच्चाईयों को जानने का मार्ग भी दिखाता है।
वेदों और उपनिषदों का योगदान:
वेद और उपनिषद हमें आत्म-ज्ञान और ब्रह्मज्ञान की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। इनमें बताए गए ध्यान और योग के माध्यम से हम अपने अचेतन मन की गहराइयों में प्रवेश कर सकते हैं और सत्य की अनुभूति कर सकते हैं।
भगवद गीता का संदेश:
भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्म-ज्ञान की दिशा में प्रेरित करते हैं। वे बताते हैं कि सच्चा ज्ञान केवल तर्क और प्रमाण से नहीं, बल्कि गहन चिन्तन और आत्मनिरीक्षण से प्राप्त होता है।
अतः अचेतन सनातन की अवधारणा तर्क की सीमाओं से परे जाकर जीवन की गहरी सच्चाईयों को उजागर करने की आवश्यकता को बताती है। यह केवल चिन्तन के माध्यम से संभव है, जो हमें आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान की दिशा में प्रेरित करता है। तर्क और चिन्तन दोनों की अपनी-अपनी जगह पर महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन जब बात अचेतन सनातन की होती है, तो चिन्तन की आवश्यकता अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
विस्तृत उदाहरण और संदर्भ:
महर्षि अरविंद का योग
महर्षि अरविंद ने योग के माध्यम से अचेतन सनातन की खोज की। उनके अनुसार, तर्क केवल बाहरी सत्यों तक ही सीमित है, जबकि चिन्तन और ध्यान हमें भीतर की गहराइयों तक ले जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद का ध्यान
स्वामी विवेकानंद ने ध्यान के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। उन्होंने तर्क की सीमाओं को समझते हुए गहन चिन्तन और आत्मनिरीक्षण का मार्ग अपनाया।
संदर्भ ग्रंथ:
वेद और उपनिषद: ये प्राचीन ग्रंथ आत्म-ज्ञान और ब्रह्मज्ञान की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
भगवद गीता: गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश आत्म-साक्षात्कार की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।
योग सूत्र: पतंजलि के योग सूत्र आत्म-ज्ञान की दिशा में महत्वपूर्ण साधन प्रदान करते हैं।
इन सभी उदाहरणों और ग्रंथों से यह स्पष्ट होता है कि अचेतन सनातन को तर्क नहीं, बल्कि गहन चिन्तन और आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। यह प्रक्रिया हमें हमारे वास्तविक स्वरूप को पहचानने और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करती है।