ग़ज़ल : ज़िन्दगी की ज़रूरत

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ग़ज़ल : ज़िन्दगी की ज़रूरत

हर हाल में मरने से पहले जीने की जंग है,
मुसीबतों से हर हाल पार पाने की उमंग है।

ये जिंदगी मुस्कुराते हुए बिताने का प्रसंग है
दायरा है बेहिसाब इस फ़लक का नवरंग हैं।

इन चाँद-तारों से परे जाने की जिन्हें तलब है,
उन्हें ही दो यह आसमां इसमें क्या गलत है?

अपनी नाराजगी लिए न बैठा करों हरदम,
कभी तो बढ़ा लिया करो प्यार से दो कदम।

उन्हें अपना बनाने की तुम्हें ही तो ज़रूरत है,
खुशियाँ ही खुशियाँ हैं फिर क्यों नफरत है?

हटाओ ये उदासियों के बादल बनाओ रिश्ते,
देखों आसपास ही तुम्हें मिल जाएंगे फरिश्ते।

ये एक ही घर में तो हैं निवास क्या मुहूरत हैं,
खाली मकानों को घर बनाने की जरूरत है।

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